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स्वतंत्रता सेनानी व पर्यावरण प्रेमी और महिला सशक्तिकरण की प्रतीक महान सामाजिक कार्यकर्ता सरला बहन* *लेखक - धर्मपाल गाँधी*

*स्वतंत्रता सेनानी व पर्यावरण प्रेमी और महिला सशक्तिकरण की प्रतीक महान सामाजिक कार्यकर्ता सरला बहन*  *लेखक - धर्मपाल गाँधी*

झुन्झुनू(चंद्रकांत बंका)सरला बहन महिला सशक्तिकरण की प्रतीक, सामाजिक कुरीतियों को मिटाने वाली महान सामाजिक कार्यकर्ता, पर्यावरण प्रेमी व हिमालय की बेटी और गाँधीजी के विचारों से प्रभावित होकर आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाली स्वतंत्रता सेनानी थी। उन्होंने महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उत्तराखंड के कौसानी में कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की थी। वह आचार्य विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले गाँधीवादी आंदोलनों से भी जुड़ी हुई थी। सात समुंद्र पार से आकर भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाली समाजसेवी सरला बहन ने पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तीकरण और बालिकाओं को बुनियादी शिक्षा देने के लिए व्यापक अभियान चलाया। वह पहली महिला थीं, जिन्होंने पहाड़ में जंगल बचाने के लिए अभियान चलाया। बाद में चिपको आंदोलन हुए। चिपको आंदोलन भी उन्हीं से प्रेरित था। सरला बहन अपने जीवन को प्रकृति में आत्मसात करके जीने वाली पर्यावरण प्रेमी थीं। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। सरला बहन जमनालाल बजाज पुरस्कार विजेता थी।
दुनिया में कई ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने जाति और धर्म के बंधन तोड़कर देश की सीमाओं को लांघकर मानव जाति के उत्थान के लिए महान कार्य किये हैं। ऐसी महान विभूतियों को याद करना बहुत जरूरी है: लेकिन वर्तमान परिपेक्ष्य में लोग अपनी जाति या धर्म के किसी छोटे-मोटे महापुरुष को खोजने का प्रयास करते हैं और उनका महिमा मंडन करते हैं। समाज का नेतृत्व करने वाले लोग भी अपने लोगों को यहीं तक सीमित रखने का प्रयास करते हैं। भारत की आजादी की लड़ाई भारत के लोगों ने अदम्य साहस, वीरता और दृढ़ संकल्प के साथ लड़ी। आजादी की लड़ाई लड़ना और आजादी प्राप्त करना हमारा कर्तव्य था। लेकिन विदेशी धरती पर जन्म लेकर भारत की आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाले महापुरुषों को याद करना बेहद जरूरी है, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से भारत के लोगों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। ऐसी ही एक महान विभूति सरला बहन उर्फ कैथरीन मैरी हेडलमैन ने इंग्लैंड में जन्म लेकर भारत की आजादी और भारत के लोगों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। सरला बहन गाँधी जी के विचारों से प्रभावित होकर अपना मुल्क छोड़कर भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधारने के उद्देश्य से यहां आई थी। उन्होंने संपन्नता को त्याग कर गरीबी और परेशानी का जीवन चुना। प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका और पागलपन को देखकर उन्होंने शांति और अहिंसा का मार्ग खोजने की अपनी यात्रा में गाँधी जी को एक अडिग पड़ाव ही नहीं बल्कि मंजिल के रूप में पाया। इंग्लैंड से आकर भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाली समाजसेवी सरला बहन ने पर्यावरण संरक्षण महिला सशक्तीकरण और बालिकाओं को बुनियादी शिक्षा देने के लिए व्यापक अभियान चलाया। वह पर्यावरण संरक्षण शब्द की रचियता थी। सरला बहन पहली पर्यावरण प्रेमी थीं, जिन्होंने पहाड़, जंगल और प्रकृति को बचाने के लिए अभियान चलाया।
सरला बहन का जन्म कैथरीन मैरी हीलमैन के रूप में 5 अप्रैल 1901 को पश्चिम लंदन के शेफर्ड बुश क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता जर्मन स्विस मूल के थे और उनकी माँ अंग्रेज थीं। उनकी पृष्ठभूमि के कारण उनके पिता को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान नजरबंद कर दिया गया था और कैथरीन को खुद भी बहिष्कार का सामना करना पड़ा और उन्हें स्कूल में छात्रवृत्ति से वंचित कर दिया गया; उन्होंने जल्दी ही स्कूल छोड़ दिया। उन्होंने कुछ समय तक क्लर्क के रूप में काम किया, अपने परिवार और घर को छोड़ दिया और 1920 के दशक के दौरान मन्नाडी में भारतीय छात्रों के संपर्क में आईं, जिन्होंने उन्हें महात्मा गाँधी और भारत में स्वतंत्रता संग्राम से परिचित कराया। महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने जनवरी 1932 में भारत के लिए इंग्लैंड छोड़ दिया और फिर कभी वापस नहीं लौटीं। भारत पहुंच कर उन्होंने उदयपुर के एक स्कूल 'विद्या भवन' में कुछ समय तक काम किया। उसके बाद वे वर्धा के सेवाग्राम में महात्मा गाँधी के पास आ गई। आश्रम में महात्मा गाँधी के सानिध्य में उन्होंने आठ वर्ष तक कार्य किया। यहाँ वे गाँधीजी की नई तालीम या बुनियादी शिक्षा के विचार से गहराई से जुड़ीं और सेवाग्राम में महिलाओं को सशक्त बनाने और पर्यावरण की रक्षा के लिए काम किया। गाँधीजी ने ही उनका नाम सरला बहन रखा था। सेवाग्राम में उन्हें गर्मी और मलेरिया ने परेशान कर दिया। गाँधीजी की सहमति से वे 1940 में संयुक्त प्रांत के अल्मोड़ा जिले के कौसानी के अधिक स्वस्थ वातावरण की ओर निकल पड़ीं। उन्होंने यहीं अपना घर बना लिया, एक आश्रम की स्थापना की और कुमाऊं में पहाड़ियों की महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए काम किया। कुमाऊँ में रहते हुए सरला बहन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम से खुद को जोड़ना जारी रखा। 1942 में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा शुरू किये गये भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने कुमाऊँ क्षेत्र में आंदोलन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़कर उनका नेतृत्व किया। उन्होंने राजनीतिक कैदियों के परिवारों तक पहुँचने के लिए क्षेत्र में व्यापक रूप से यात्रा की और आजादी की लड़ाई में भाग लेने की वजह से जेल भी गईं। उन्होंने लगभग दो साल तक अल्मोड़ा और लखनऊ जेलों में समय बिताया। कुमाऊँ में अपनी राजनीतिक सक्रियता के दौरान, सरला बहन गिरफ़्तार स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों की मुखिया महिलाओं के दृढ़ संकल्प और कुशलता से बहुत प्रभावित हुईं, लेकिन जब उन्होंने बैठकों के लिए कहा तो महिलाओं ने कहा कि "बहनजी, हम महिलाएं सिर्फ घर का काम करना जानती हैं, बैठकें और ऐसी अन्य सामाजिक गतिविधियाँ केवल पुरुषों के लिए हैं।" फिर सरला बहन ने उन्हें यह एहसास दिलाने के लिए काम करना शुरू कर दिया कि वे निष्क्रिय जानवर नहीं हैं, बल्कि "धन की देवी" हैं। आपको भी पुरुषों के बराबर आजादी की लड़ाई में भाग लेने का अधिकार है। सरला बहन ने महिलाओं को घर से बाहर निकाल कर आंदोलन से जोड़ने का अभियान चलाया। कौसानी में उन्होंने 1946 में कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल, लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की थी। संस्था के माध्यम से उन्होंने महिलाओं को शिक्षित और सशक्त बनाने का अभियान चलाया। आश्रम के लिए भूमि देने वाले व्यक्ति की पत्नी के नाम पर संस्था का नाम लक्ष्मी आश्रम रखा गया। केवल तीन छात्रों के साथ शुरू हुए इस आश्रम ने गाँधीवादी विचार नई तालीम के माध्यम से लड़कियों को शिक्षा प्रदान की, जिसका ध्यान न केवल पढ़ाई पर बल्कि शारीरिक श्रम और समग्र शिक्षा पर भी था। अपनी स्थापना के बाद से, आश्रम ने विमला बहुगुणा, सदन मिश्रा, राधा भट्ट और बसंती देवी सहित कई उल्लेखनीय सुधारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जन्म दिया है। उत्तराखंड में सरला बहन को पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में उनकी भूमिका के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, जिन्होंने चिपको आंदोलन को आकार देने और उसका नेतृत्व करने में मदद की, वह आचार्य विनोबा भावे और जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले गाँधीवादी आंदोलनों से भी जुड़ी थीं। आश्रम की बागडोर राधा भट्ट को सौंपने के बाद, उन्होंने 1960 के दशक के अंत में बिहार में भूदान आंदोलन में आचार्य विनोबा भावे के साथ और 1970 के दशक की शुरुआत में चंबल नदी घाटी में जयप्रकाश नारायण के साथ चंबल के डकैतों को आत्मसमर्पण कराने और डकैतों के परिवारों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का कार्य किया।
पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में सरला बहन की भूमिका और भी बड़ी थी, स्वतंत्रता सेनानी मीराबेन के साथ मिलकर उन्होंने हिमालयी क्षेत्र में व्याप्त पर्यावरण संकट के प्रति प्रतिक्रिया को आकार देने में मदद की। सरला बहन के मार्गदर्शन में 1961 में उत्तराखंड सर्वोदय मंडल अस्तित्व में आया, जिसका मुख्य उद्देश्य महिलाओं को संगठित करना, शराबखोरी से लड़ना, वन आधारित लघु उद्योग स्थापित करना और वन अधिकारों के लिए लड़ना था। 1960 के दशक में मंडल और इसके सदस्यों ने इन उद्देश्यों के लिए सक्रिय रूप से काम किया। 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन के मद्देनजर सरला बहन ने चिपको आंदोलन की शुरुआत की, जो यमुना घाटी में एक लोकप्रिय प्रदर्शन के साथ शुरू हुआ, जहां पूर्व में औपनिवेशिक अधिकारियों ने 1930 के दशक में जंगलों के व्यावसायीकरण का विरोध करने पर कई कार्यकर्ताओं को गोली मार दी थी। शब्द 'चिपको' ( जिसका अर्थ है गले लगाना ) आंदोलन के साथ बाद में जुड़ा जब ग्रामीणों ने फैसला किया कि वे पेड़ों को गिरने से रोकने के लिए उन्हें गले लगायेंगे।
उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण, ग्राम स्वराज के साथ ही सामाजिक कुरीतियों से समाज को जागरूक करने में सरला बहन का अहम योगदान रहा। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। उन्होंने ‘संरक्षण और विनाश’ किताब के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन की वास्तविक स्थिति तथा वैचारिक पहलुओं को उठाया। सरला बहन एक विपुल लेखिका थीं, जिन्होंने संरक्षण, महिला सशक्तिकरण और पर्यावरण के मुद्दों पर हिंदी और अंग्रेजी में 22 किताबें लिखीं, जिनमें रिवाइविंग अवर डाइंग प्लैनेट और ए ब्लूप्रिंट फॉर सर्वाइवल ऑफ द हिल्स शामिल हैं। उनकी आत्मकथा का शीर्षक ए लाइफ इन टू वर्ल्ड्स: ऑटोबायोग्राफी ऑफ महात्मा गांधीज इंग्लिश डिसाइपल है। सरला बहन ने लक्ष्मी आश्रम को एक मॉडल के रूप में विकसित किया। ये गाँधी का ही जीवित मॉडल है। दूसरी और हिमदर्शन कुटीर को चिंतन स्थली के रूप में सरला बहन ने विश्व को प्रदान किया। जब दुनिया में शांति, अहिंसा और सत्य की बात होगी, तब समझदार लोग सरला बहन जैसी गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं की तलाश करेंगे। पर्यावरण संरक्षण हो या सामाजिक कुरीतियों को खत्म करना। सरला बहन का योगदान अतुलनीय है। उनके योगदान को हमेशा याद किया जायेगा।
1975 में सरला बहन पिथौरागढ़ जिले के धरमगढ़ में एक झोपड़ी में रहने लगीं, जहाँ वे जुलाई 1982 में अपनी मृत्यु तक रहीं। 8 जुलाई 1982 को सरला बहन ने अपनी कर्मभूमि भारत में दुनिया को अलविदा कहा। लक्ष्मी आश्रम में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया। वह जमनालाल बजाज पुरस्कार की विजेता थीं और उनके 75वें जन्मदिन के अवसर पर उन्हें " हिमालय की बेटी " और उत्तराखंड में "सामाजिक सक्रियता की जननी" कहा गया। उनकी मृत्यु के बाद से, लक्ष्मी आश्रम सर्वोदय कार्यकर्ताओं और समुदाय के सदस्यों की एक सभा की मेज़बानी करके उनकी वर्षगांठ मनाता है ताकि सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने के लिए रणनीति पर चर्चा और रूपरेखा तैयार की जा सके। उत्तराखंड सरकार ने कौसानी में सरला बहन स्मारक संग्रहालय स्थापित किया है। आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार महान आत्मा सरला बहन को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन करता है। 
              लेखक - धर्मपाल गाँधी 
                       अध्यक्ष 
              आदर्श समाज समिति इंडिया

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